एक हिन्दु परिवार के मुखिया ‘क’ की मृत्यु पर उसकी 600 बीघा भूमि उसके 5 पुत्रों ‘ख’ ‘ग’ ‘घ’ ‘ङ’ ‘च’ और एक विधवा ‘छ’ को 100-100 बीघा समान
भाग में मिल गई। कुछ समय के पश्चात उसका पुत्र ‘ख’ (जिसकी पत्नी पहले ही मर चुकी थी) अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया । उसकी 100 बीघा भूमि हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार उसके 5 वर्षीय इकलौते पुत्र ‘ज’ को 50 बीघा व विधवा माता ‘छ’ को 50 बीघा चली गई । अब विधवा माता ‘छ’ के पास 150 बीघा भूमि हो गई थी । कुछ दिन बाद विधवा माता ‘छ’ का भी देहान्त हो गया । उसकी 150 बीघा भूमि उसके 4 जीवित
पुत्रों ‘ग’ ‘घ’ ‘ङ’ ‘च’ व पूर्व मृतक
पुत्र ‘ख’ के बेटे ‘ज’ प्रत्येक को 30-30 बीघा मिल गई । अब नाबालिग पोते ‘ज’ के पास 50+30=80 बीघा तथा उसके चाचा ‘ग’ ‘घ’ ‘ङ’ ‘च’ प्रत्येक 100+30=130 बीघा के मालिक बन गए थे । अगर ‘ज’ के पिता की असमय मृत्यु न हुई होती तो वह अपने अन्य चाचा
लोग के समान 120 बीघे का मालिक होता । हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम का यह प्रावधान बहुत
बार प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त की धज्जियां उड़ा देता है ।
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